डाॅ.दीपक चोपड़ा, आध्यात्मिक गुरू
चेतना न तो मन है न शरीर। यह सामथ्र्य, रचनात्मक आौर अनिश्चितता का क्षेत्र है। ज्यादातर लोगों के पास अपने अस्तित्व के इस हिस्से के बारे में चिंता करने का वक्त नहीं है या वे इसकी परवाह नहीं करते।
अच्छी सेहत के लिए मौन बहुत महत्वपूर्ण है। मैं तो कहूंगा कि जिंदगी के लिए अहम है। यही वजह है कि मैं प्रतिदिन दो घंटे मेडिटेशन करता हूं। सुबह 4 बजे से 6 बजे तक। मेडिटेशन मतलब है, खुद के साथ होना। रोज मेडिटेशन के अलावा मैं साल में दो बार एक-एक हफ्ते के लिए मौन धारण करता हूं। तब मैं निर्जन स्थानों पर चला जाता हूं। यह कोई भी जगह हो सकती है। उटान जैसी कोई पहाड़ी जगह जहां न लोग हों और न कोई टेक्नोलाॅजी। यह मेरी ओर से खुद के लिए ट्रीट हाती है, खुद को दिया तोहफा होता है।
मौन की बात आती है तो हम मन और चेतना पर आते हैं। दोनों का फर्क समझना जरूरी है। मन विचार है और चेतना इसका स्त्रोत है। चेतना का मतलब आपका होना है, अस्तित्व है। आपका हर अनुभव चेतना का अनुभव है, इसके बिना आप कुछ अनुभव नहीं कर सकते। चेतना हमेशा बनी रहती है। जब मैं छोटा था तो मेरा मन यानी माइंड कुछ और था। किशोरावस्था में कुछ और हुआ। मैं कौन हूं वह छोटो सा बच्चा या स्कूल जाने वाला किशोर किंतु जब आप चेतना को आंतरिक संदर्भ बिंदु बनाते हैं तो आपके लिए समय का अस्तित्व नहीं होता।
मन, शरीर और चेतना को यूं समझा जा सकता है कि मन तो चेतना का व्यक्तिगत अनुभव है जबकि शरीर वस्तुनिष्ठ, आॅब्जेक्टिव एक्सपीरियंस है। किंतु स्वयं चेतना न तो मन है न तो शरीर - सामथ्र्य, रचनात्मकता और अनिश्चितता का क्षेत्र है। ज्यादातर लोगों के पास अपने अस्तित्व के हिस्से के बारे में चिंता करने का वक्त नहीं है या वे इसकी परवाह नहीं करते। यह मौन से संभव है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें